Long time ago i happened to read about the displacement of a village in Gujrat due to the Narmada dam construction and how people who have stayed there for years are moving away after dismantling their dreams and their domes altogether. Following are a few lines that i penned thinking about what it would be like to leave all that you have ever had for the bleak unknown. I think it would be imperative that someone in that situation would only yearn to go back and that is what i have tried to summarise in the few lines that i have written here..... करवटों से सिली हुइ सपनों की जहाँ चादर थी , बारिशों में पली बड़ी बूंदों की जहाँ साजिश थी, बादलों सा बहता हुआ आशाओं का था जहाँ तराना, लौटा दो वो गाँव मेरा जहाँ था मेरा सिराहना। लौटा दो वो गाँव मेरा जहाँ था मेरा सिराहना। धुप में खिलती थी जहा बचपन की वोह मेरी बातें, अमिया के पेड़ तले ठंडी ठंडी सी रातें, कच्चे पक्के से रास्तों पे से जहाँ था मेरा आना जाना, लौटा दो वोह गाँव था जहाँ मेरा सिराहना। लौटा दो वोह गाँव जहाँ था मेरा सिराहना।